दर्द हो तो गाने
लगते हैं
थोड़ी सी चोट पे
आंसू बहाने लगते हैं
भाई ये एक दो
दिन की लड़ाई नहीं
है
इसमें ज़माने लगते हैं
कमज़ोर समझ के सताने लगते
हैं
रुतबा हो तो हाथ
मिलाने लगते हैं
खुद के बातों पे
जब ऐतबार नहीं होता
अपने ही लब्ज़ों को
मिटाने लगते हैं
बर्बादियों के निमंत्रण में
मैख़ाने लगते हैं
पैसे ज़्यादा
हों तो कपडे पुराने
लगते हैं
ये कल के
लोग रिश्तों को क्या जाने
थोड़ी हैसियत में ही इतराने लगते
हैं
आसमां की गहराइयों में
परिंदे मुरझाने लगते हैं
औकात से ज़्यादा मिले
तो लोग पगलाने लगते हैं
बिना हुनर के लहरों से
मत टकराना
वो पत्थरों को
भी रेत बनाने लगते हैं
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