Friday, October 26, 2018

कश्ती


हजारों को सर पे लेके चलती हूँ 
ऐसी मैं एक  कश्ती हूँ 
कोई डूब ना जाए जिससे मैं डरती हूँ 
फिर भी मैं लहरों के सर पे ही रहती हूँ 

किनारे दर किनारों पे रुक जाती हूँ 
बीच भंवर में मैं मस्ती से चलती हूँ 
लोग बैठे मुस्कुराते हैं 
और मैं लहरों की हर एक चोट छुपाये फिरती हूँ 

अँधेरी रातों में अकेली हो जाती हूँ 
ये देख आसमां नीचे आ जाता है 
बगल में हँसता चाँद बिगड़ जाता है 
करवटें जब भी मैं बदलती हूँ 

हजारों को सर पे लेके चलती हूँ 
ऐसी मैं एक  कश्ती हूँ 



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thank u so much...

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