इश्क का शहर
मेरी बस्ती से नज़र आया नहीं
शाम गुज़रे जमाना हुआ
नीद फिर भी नज़र आयी नहीं
लोग खुद में ही उलझते रहे
मुझमे देखने वाला कोई आया नहीं
चेहरे की मुस्कान से ही वो लौट गए
इस दीवार को तोड़ने वाला कोई आया नहीं
शब गुज़रती रही मेरी उम्मीदों पे
सिर्फ उनका आना ही काफी नहीं
माना की इजहार का हुनर ना था मेरे पास
वो तो समझदार थे, खामोश क्यों चले गये
रात भी जली, दिन भी जला
मेरा सारा ख्वाब भी जला
वादा भी नहीं हुआ
अब इंतज़ार करने का कोई फायदा ही नहीं
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