खिलता है और गिर के खो जाता है
काँटों के बीच में वो मुस्कुराता है
मोहब्बत पे उसकी बलि चढ़ती है
कैसा है ये मैयत पे भी नज़र आता है
अंगारों में तप के दीयों का गुज़रना होता है
सीने में आग जला के रौशनी बिखेरना होता है
कोई देख ना ले पैरों के नीचे का अँधेरा
दीयों को ये भी छुपाना होता है
छतों को कहीं और नहीं जाना होता है
दीवारों पे लेट के एक आशियाँना बनाना होता है
बारिश, धूप, अँधेरा कितना भी हो
घरों की खुशियों में थोड़ा मुस्कुराना होता है
No comments:
Post a Comment
thank u so much...