Saturday, December 2, 2017

वो शहर ही, कुछ ऐसा था




वो शहर ही , कुछ ऐसा था 
जहाँ हर तरफ आशिकी का खुमार था 
स्कुल के ही पीछे एक बाग़ था 
जहाँ हम मिला करते थे 

मिलने में कुछ दोस्तों की मेहरबानी थी 
तो कुछ गुरु द्रोणाचार्य थे 

घंटो बातें होती थी 
जिसमे मेरी ख़ामोशी थी 
उसके बोलने में कहीं थकान नहीं थी
सुनने की आदत उसी से मिली थी 

फूलों की पंखुडियां आसमान से बात कर रही थीं 
बस बिखरना बाकी था 

अपना ही कोई प्रिंसिपल से बात किया 
और मेरे मम्मी-पापा को, उसकी मम्मी-पापा के सामने किया 
लोगों की आपस में बहस हुई 
फिर ना वो मिली , ना हम मिले 
कुछ ऐसा संविथान हुआ 

मैं खामोश तभी से हूँ 
बस उसकी बातें कहीं खो गई 
वो शहर ही कुछ ऐसा था 
जहाँ हर तरफ आशिकी का खुमार था 




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thank u so much...

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