हजारों को सर पे लेके चलती हूँ
ऐसी मैं एक कश्ती हूँ
कोई डूब ना जाए जिससे मैं डरती हूँ
फिर भी मैं लहरों के सर पे ही रहती हूँ
किनारे दर किनारों पे रुक जाती हूँ
बीच भंवर में मैं मस्ती से चलती हूँ
लोग बैठे मुस्कुराते हैं
और मैं लहरों की हर एक चोट छुपाये फिरती हूँ
अँधेरी रातों में अकेली हो जाती हूँ
ये देख आसमां नीचे आ जाता है
बगल में हँसता चाँद बिगड़ जाता है
करवटें जब भी मैं बदलती हूँ
हजारों को सर पे लेके चलती हूँ
ऐसी मैं एक कश्ती हूँ